Ravish Kumar – आईटी सेल का काम शुरू हो गया है। मेरा (Ravish Kumar), प्रशांत भूषण, जावेद अख़्तर और नसीरूद्दीन शाह के नंबर शेयर किए गए हैं। 16 फरवरी की रात से लगातार फोन आ रहे हैं। लगातार घंटी बजबजा रही है। वायरल किया जा रहा है कि मैं जश्न मना रहा हूं। मैं गद्दार हूं। पाकिस्तान का समर्थक हूं। आतंकवादियों का साथ देता हूं। जब पूछता हूं कि कोई एक उदाहरण दीजिए कि मैंने ऐसा कहा हो या किया हो तो इधर-उधर की बातें करने लगते हैं। उनसे जवाब नहीं दिया जाता है।
पुलवामा की घटना से संबंधित कुछ मूल प्रश्न हैं। राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने कई चैनलों पर कहा है कि सुरक्षा में चूक हुई है। 2500 जवानों का काफिला लेकर नहीं निकला जाता है। हाईवे की सुरक्षा को लेकर जो तय प्रक्रिया है उसका पालन नहीं हुआ। अब इन लोगों को राज्यपाल से पूछना चाहिए, PM और गृहमंत्री से पूछना चाहिए कि इस पर आप क्या कहते हैं। यह सवाल कई लोगों के मन में हैं ।
क्या अच्छा नहीं कि इसके बाद भी पूरा विपक्ष और जनता सरकार के साथ खड़ी है। कोई इस्तीफा तक नहीं मांग रहा है। जब इतने लोग खड़े हैं तो हम जैसे दो चार नाम को लेकर अफवाहें क्यों फैलाई जा रही हैं। ताकि कोई सरकार से सवाल न करें? कोई PM मोदी से यह न पूछे कि शोक के समय आप किसी सरकारी कार्यक्रम में अपने लिए वोट कैसे मांग सकते हैं। आप झांसी में दिया गया उनका भाषण खुद सुनें। PM को राजनीति करने की छूट है मगर बाकी सबको नहीं।
गोदी मीडिया के ज़रिए सही सूचनाएं लोगों तक नहीं पहुंचने दी जा रही हैं। अर्ध सैनिक बलों को पता है कि उनकी बात करने वाला इस गोदी मीडिया में हमीं हैं। हमने ही उनके पेंशन से लेकर वेतन तक की मांग में उनका साथ दिया है। सीआरपीएफ और बीएसएफ का कमांडेंट जीवन लगा देता है मगर अपने ही फोर्स का नेतृत्व उसे नहीं मिलता। इस पर चर्चा हमने की है। क्या बीजेपी का अध्यक्ष कोई कांग्रेस का हो सकता है? तो किस हिसाब से युद्धरत स्थिति में तैनात सीआरपीएफ और बीएसफ का नेतृत्व आई पी एस करता है? सांसद और विधायक को पेंशन मिलती है, मगर हमारे जवानों को पेंशन क्यों नहीं मिलती है? यह सवाल मैं पहले से करता रहा हूं और इस वक्त भी करूंगा।
जुलाई 2016 में ब्रिटने में सर जॉन चिल्कॉट ने 6000 पन्नों की एक जांच रिपोर्ट दी थी। 12 खंडों में 26 लाख शब्दों से यह रिपोर्ट बनी थी। सात साल तक जांच के बाद जब रिपोर्ट आई तो नाम दिया गया द इराक इन्क्वायरी। सर चिल्कॉट को ज़िम्मेदारी दी गई थी कि क्या 2003 में इराक पर हमला करना सही और ज़रूरी था? यह उस देश की घटना है जिसने कई युद्ध देखे हैं। युद्ध को लेकर आधुनिक किस्म की नैतिकता और भावुकता इन्हीं यूरोपीय देशों से पनपी है।
उस वक्त ब्रिटेन में इराक युद्ध के खिलाफ दस लाख लोग सड़कों पर उतरे थे। तब उन्हें आतंकवाद का समर्थक कहा जाता था। ब्रिटेन द्वितीय युद्ध के बाद पहली बार किसी युद्ध में शामिल हुआ था। कहा जाता था कि सद्दाम हुसैन के पास मानवता को नष्ट करने वाला रसायनिक हथियार हैं। जिसे अंग्रेज़ी में वेपन ऑफ मास डिस्ट्रक्शन कहा जाता है। चिल्काट ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि इराक के पास रसायनिक हथियार होने के ख़तरों के जिन दावों के आधार पर पेश किया गया उनका कोई औचित्य नहीं था।
सर चिल्काट की रिपोर्ट इस नतीजे पर पहुंची है कि ब्रिटेन ने युद्ध में शामिल होने का फैसला करने से पहले शांतिपूर्ण विकल्पों का चुनाव नहीं किया। उस वक्त सैनिक कार्रवाई अंतिम विकल्प नहीं थी।
जब युद्ध हुआ था तब टोनी ब्लेयर को हीरो की तरह मीडिया ने कवर पेज पर छापा था। टोनी ब्लेयर की छवि भी मज़बूत और ईमानदार की थी। चिल्काट कमेटी ने लिखा कि ब्लेयर ने एक मुल्क के लाखों लोगों को मरवाने के खेल में शामिल होने के लिए अपने मंत्रिमंडल से झूठ बोला। अपनी संसद से झूठ बोला। जब यह रिपोर्ट आई तब लेबर पार्टी के नेता जेर्मी कोर्बिन ने इराक और ब्रिटेन की जनता और उन सैनिकों के परिवारों से माफी मांगी जो इराक युद्ध में मारे गए या जिनके अंग कट गए।
पहले लंदन का एक अखबार है द सन। उसकी हेडलाइन थी ‘सन बैक्स ब्लेयर’। ब्लेयर के हाथ में सन है और सन अखबार ब्लेयर के समर्थन में है। जब चिल्काट कमेटी की रिपोर्ट आई तब इसी सन अखबार ने हेडलाइन छापी ‘वेपन ऑफ मास डिसेप्शन’। हिन्दी में मतलब सामूहिक धोखे का हथियार। डेली मिरर अखबार ने तब जो कहा था वो दस साल बाद सही निकला। 29 जनवरी 2003 के अखबार के पहले पन्ने पर छपा था, ब्लेयर की दोनों हथेलियां ख़ून से सनी हैं। लिखा था ब्लड ऑन हिज़ हैंड्स- टोनी ब्लेयर।
हर देश की अपनी परिस्थिति होती है। बस आप इस कहानी से यह जान सकते हैं कि कई बार किसी अज्ञात मकसदों के लिए राष्ट्राध्यक्ष मुल्क को युद्ध में धकेल देते हैं। इसलिए किसी भी तरह के सवाल से मत घबराइये। सवाल देश विरोधी नहीं होते हैं। उससे सही सूचनाओं को बाहर आने का मौका मिलता है और जनता में भरोसा बढ़ता है। जनता भीड़ नहीं बनती है। युद्ध का फैसला भीड़ से नहीं बल्कि रणनीतिकारों के बीच होना चाहिए। युद्ध एक व्यर्थ उपक्रम है। इससे कोई नतीजा नहीं निकलता है।
कई जगहों पर कश्मीरी छात्रों को मारा जाने लगा है। क्या यह सही है? जो आतंकवादी मसूद अज़हर था उसे तो जहाज़ से छोड़ आए, कौन छोड़ कर आया आप जानते हैं, लेकिन जिनका कोई लेना देना नहीं उन्हें आप मार रहे हैं। सीआरपीएफ ने कश्मीरी छात्रों की मदद के लिए हेल्पलाइन नंबर जारी किया है। सीआरपीएफ के ट्वीटर हैंडल पर जाकर देखिए उसमें कहा गया है कि कहीं भी हों, हमसे संपर्क करें। क्या आपमें हिम्मत है कि सीआरपीएफ पर उंगली उठाने की? सलाम है सीआरपीएफ को।
इसलिए मुझे फोन करने से कोई लाभ नहीं। प्रधानमंत्री से पूछिए। सारे जवाब उनके पास हैं। आपस में ज़हर मत बांटिए। एकजुट रहिए। सारी बहस तर्क के आधार पर कीजिए। पाकिस्तान को सबक बेशक सीखाना चाहिए। हर हाल में सीखाना चाहिए मगर पहले नागरिक होने का सबक सीख लें तो बेहरत होगा। हम शोक में हैं। ठीक है कि सारा जीवन पूर्ववत चल रहा है। मगर ख़्याल आता है तो मन उदास होता है। संयम बनाए रखें। धूर्त नेताओं से सावधान रखें। – Ravish Kumar
सोर्स – Ravish Kumar के पेज से साभार !