जब किसी व्यक्ति को उसकी पसंद का खाना खाने के लिए मार दिया जाता है, तो यह मौत संविधान की होती है। यह बात सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने मौजूदा वक्त में संविधान के सामने चुनौतियों पर बात करते हुए कही।
उन्होंने हाल ही में घटी कुछ घटनाओं का ज़िक्र करते हुए कहा, “संविधान तब विफल हो जाता है जब एक कार्टूनिस्ट को देशद्रोह के लिए जेल में डाल दिया जाता है। जब एक ऐसे ब्लॉगर को ज़मानत के बदले जेल मिलती है जो धार्मिक वास्तुकला का आलोचक था, तो संविधान विफल हो जाता है”।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने आगे कहा, “जब हम धर्म और जाति के आधार पर लोगों को प्यार करने से रोकते हैं, तो संविधान रोता है। सच में ऐसा कल हुआ था, जब एक दलित दूल्हे को घोड़े के ऊपर से नीचे उतरने के लिए मजबूर किया गया। जब हम ऐसी घटनाओं के बारे में पढ़ते हैं, तो संविधान रोता है”।
जस्टिस चंद्रचूड़ बॉम्बे बार एसोसिएशन द्वारा आयोजित बॉम्बे हाईकोर्ट में जस्टिस देसाई मेमोरियल लेक्चर में बोल रहे थे। इस दौरान उन्होंने केरल के सबरीमाला मंदिर विवाद पर भी अपनी राय रखी।
उन्होंने कहा कि जिस तरह धर्म के पालन का अधिकार है, उसी तरह महिलाओं के भी अपने अधिकार हैं। इसलिए धर्म के पालन के अधिकार को महिलाओं के अधिकार से अलग नहीं देखा जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट के जज ने कहा, “संविधान में परिवर्तनकारी दृष्टि है, जो लोगों को नियति की शक्ति देना चाहती है। व्यक्तिगत इसकी मूल इकाई है। एक संवैधानिक संस्कृति इस विश्वास पर आधारित है कि यह लोगों को एकजुट करती है। इसकी प्रस्तावना में ‘हम’ है”।
उन्होंने हाल ही में घटी कुछ घटनाओं का ज़िक्र करते हुए कहा, “संविधान तब विफल हो जाता है जब एक कार्टूनिस्ट को देशद्रोह के लिए जेल में डाल दिया जाता है। जब एक ऐसे ब्लॉगर को ज़मानत के बदले जेल मिलती है जो धार्मिक वास्तुकला का आलोचक था, तो संविधान विफल हो जाता है”।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने आगे कहा, “जब हम धर्म और जाति के आधार पर लोगों को प्यार करने से रोकते हैं, तो संविधान रोता है। सच में ऐसा कल हुआ था, जब एक दलित दूल्हे को घोड़े के ऊपर से नीचे उतरने के लिए मजबूर किया गया। जब हम ऐसी घटनाओं के बारे में पढ़ते हैं, तो संविधान रोता है”।
जस्टिस चंद्रचूड़ बॉम्बे बार एसोसिएशन द्वारा आयोजित बॉम्बे हाईकोर्ट में जस्टिस देसाई मेमोरियल लेक्चर में बोल रहे थे। इस दौरान उन्होंने केरल के सबरीमाला मंदिर विवाद पर भी अपनी राय रखी।
उन्होंने कहा कि जिस तरह धर्म के पालन का अधिकार है, उसी तरह महिलाओं के भी अपने अधिकार हैं। इसलिए धर्म के पालन के अधिकार को महिलाओं के अधिकार से अलग नहीं देखा जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट के जज ने कहा, “संविधान में परिवर्तनकारी दृष्टि है, जो लोगों को नियति की शक्ति देना चाहती है। व्यक्तिगत इसकी मूल इकाई है। एक संवैधानिक संस्कृति इस विश्वास पर आधारित है कि यह लोगों को एकजुट करती है। इसकी प्रस्तावना में ‘हम’ है”।